Saturday, April 13, 2013

उसे फ़िर लौट कर जाना है ये मालूम था उस वक्त भी ,
जब शाम की सुर्ख सुनहरी रेत पर वो दौड़ती आई थी ...
और लहराकर यु आगोश में बिखरी थी,
जैसे पुरे का पुरा समंदर लेकर उमड़ी हो ।
उसे जाना है वो भी जानती तो थी मगर,
हर रात फ़िर भी हाथ रख कर चाँद पर खाते रहे कसमे ...
न में उतारूंगा अब सांसो की साहिल से ,
न वो उतरेंगी मेरे मेरे अस्मा पर ज़ुमते तारों के बिंगो से ...
मगर जब कहते रहते दास्ताँ , फ़िर वक्त ने लम्बी जमाए ली ॥
न वो ठहरी न में ही रोक पाया ...
न वो ठहरी न में ही रोक पाया था ,
बहोत रोका सूरज ने चाँद को फ़िर भी ,
उसे एक एक कलह उखाड़ते हुए देखा ...
बहोत खेचा समंदर को मगर साहिल तलक हम ला नही पाए ।
सहर के वक्त फ़िर उतरे हुए साहिल पर एक डूबा हुआ खली समंदर था ।
कितना अरसा हुआ कोई उम्मीद जलाये, कितनी मुद्दत हुई किसी कंदील पर जलती रौशनी रखे।
चलते फिरते इस सुनसान हवेली में चलते फिरते कितनी बार गिरा हु में ...
चाँद अगर निकले तो अब इस घर में रौशनी होती है
वरना अँधेरा ही रहता है ...

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